पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/३०८

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अब तो यह शव है, शिव नहीं । प्राज के प्रचलित

धर्म का प्राण-वायु निकल गया है । क्षयरोग से इस की मृत्यु हुई है। यह मुर्दा मजहब हमारा क्या भला करेगा ? इस शव को हम कबतक छाती से लगाये बैठे रहेंगे ? इस की अन्त्येष्टि तो करनी ही होगी । पर, थोड़ा और ठहर जायँ । हानि ही क्या है, यदि अन्त्येष्टि-संस्कार के पहले 'शव-मन्थन' कर डाले ? हमें आज यह अशुभ कार्य भी करना होगा । मुर्दे मजहब से, एक बार मथकर देखें, क्या सार निकलता है । पुराकाल में ऋषियोंने अत्याचारी वेण का शव-मन्थन ही तो किया था। पौराणिक कथा के अनुसार उसके शव में से महान् उद्धारक पृथु निकला था । इसी प्रख्यात पृथु के न्यायशासन से. पृथिवी का नाम सार्थक हुआ । संभव है, इस सद्धर्म-शून्य युग में हमारी यह विश्व- क्रान्ति भी हमें कोई उद्धार का मार्ग दिखा जाय । धार्मिक जगत् में विप्लव करना ही होगा, या वह होकर ही रहेगा। यह भी संभव है, कि यह शव ही शिव में परिणत होकर पुनः ताण्डव क्रीड़ा करने लग जाय। कौन देख आया है, लीलामय तेरी अदृष्ट लीला को !