सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/३१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।


दी थी । त्याग मौर अनासक्ति की रक्षा हम कायरों से न हो सकी । देखना है, अब इसका मन्थन करते बनता है या नहीं। भावुकजन शायद शव-मन्थन करने को राजी़ न हों। उन्हें निर्जीव धर्मो को शव कहना अच्छा न लगेगा। खै़र, हज़ारों-लाखों वर्षों का रखा हुआ इसे दही समझ लिया जाय । धर्म का दूध जमकर ऊपर से मानों पत्थर हो गया है, पर अन्दर-ही-अन्दर सड़ चुका है। न सही शव-मन्थन, दधि-मंथन तो भावुकजन हमारे साथ मिल- कर करेंगे ? कोई योग दे या न दे, पर कृष्ण ! तू हमें यही स्पष्ट आज्ञा दे रहा है, कि हम लोग धर्म के इन समस्त प्रचलित अंगों को मथकर तेरे प्रीत्यर्थ एक नूतन नवनीत निकाल ल । प्यारे गोपाल, तू चाहता भी तो नित्य नूतन नवनीत है । तेरी सामयिक आज्ञा का पालन हम करेंगे- पालन करना ही होगा । जीवन-संग्राम में हम अमर विजय चाहते हैं, तो एक जीवित विश्व-धर्म खोजना ही होगा। रूठे हुए मालिक ! उसी नवनीत का नज़राना देकर हम तुझे मना सकेंगे, रिझा सकेंगे। हम ऐसी भेट तेरे चरणों पर चढ़ाना चाहते हैं, देवाधिदेव, जो साधारण जनता की तैयार की हुई हो । वह मनुष्य-निर्मित हो; न पशु-निर्मित हो, न देव-निर्मित । हमें विश्वास है, तू अपनी मधुर मुस्कान के मोती हमारी उस भेट पर जरूर विखेर देगा। यदि विप्लव-युग की हमारी उस नव भेट को, हे सुन्दरतम,

४७