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पृष्ठ:स्वाधीनता.djvu/३३

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स्वाधीनता।


लीफ पहुंचती है; पर सामाजिक जुल्म से मन तक-आत्मा तक-गुलाम हो जाता है; उसे कैद हो जाना पड़ता है। वह अपने वश में नहीं रहने पाता। इस लिए, सिर्फ मैजिस्ट्रेटों के, अधिकारियों के, या सत्ताधारी हाकिमों के जुल्म से बचने का प्रबन्ध करने ही से काम नहीं चल सकता। समाज के मन और प्रबल मनोविकारों को जुल्म से बचाने का भी प्रयत्न करना चाहिए। अर्थात्, सत्ताधारी समाज के खयाल और चाल ढाल के अनुसार जो लोग, बर्ताव नहीं करते उनसे, दीवानी या फौजदारी कानून के ही बल से नहीं, किन्तु, और उपायों से भी अपनी समझ और अपनी रीति-रवाज के अनुसार, बलपूर्वक, बर्ताव कराने की इच्छा से भी बचाव करना चाहिए। और, समाज के रीति-रवाज अर्थात् रूढ़ि के अनुसार जो लोग नहीं चलते उनकी बढ़ती को रोकने, या यथा-सम्भव उनके उठान ही को बन्द करने, और अपना सा बर्ताव करने के लिए औरों को मजबूर करने की सामाजिक प्रवृत्ति के प्रयोग से बचने का भी यत्न करना चाहिए। इसकी भी हद है कि समाज को आदमी की-व्यक्तिविशेप की-स्वाधीनता में कहां तक हस्तक्षेप करना चाहिए-कहां तक दस्तन्दाजी करना चाहिये। और, मनुष्यमात्र को अच्छी तरह रहने के लिए, अधिकारियों के जुल्म से बचाव करने की जितनी जरूरत है उतनी ही, उस हद को ढूंढ निकालने और समाज को उसके आगे बढ़ने से रोकने के लिए उपाय करने की भी जरूरत है।

यह एक ऐसा सिद्धान्त है-यह एक ऐसी बात है कि मामूली तौर पर शायद इसे सभी पसन्द करेंगे। परन्तु सारा दार मदार इस बात पर ठहरा हुआ है कि उस हद को नियत कहां पर करना चाहिए? मनुष्यों की स्वाधीनता और समाज के बन्धन की हदबन्दी किस तरह करना चाहिए? दूसरों की काररवाइयों को एक मुनासिब हद के भीतर रखने, अर्थात् उचित रीति पर उनका प्रतिवन्ध करने, पर ही हर आदमी का संसार सुख अवलम्बित है। अतएव, आदमियों के चाल-चलन सम्बन्धी कुछ कायदों का, कानून के द्वारा, बनाया जाना उचित है। पर बहुतसी बातें ऐसी हैं जिनके लिए सरकारी कानून का बन्धन मुनासिब नहीं है। इससे, उनके विषय में, लोगों की सम्मति के अनुसार, नियम बनाये जाने चाहिए। आदमियों के काम काज से सम्बन्ध रखनेवाला मुख्य प्रश्न अब यह है कि ये नियम कौन और कैसा होने चाहिए। परन्तु दो चार बहुत ही मोटे नियमों को छोड़ कर और