इस पुस्तक में मैं एक ऐसे सीधे सादे, पर व्यापक, सिद्धान्त का विवेचन करना चाहता हूं जिससे यह मालूम हो जाय कि, जुदा जुदा, हर आदमी के साथ समाज का व्यवहार कैसा होना चाहिए। अर्थात् व्याक्त-विशेष से किस तरह का व्यवहार करना समाज को उचित है और किस तरह का उचित नहीं। अधवा व्यक्ति-विशेष को समाज कहां तक अपने ताबे में रख सकता है और कौन कौन सी बातें वह बलपूर्वक उससे करा सकता है। यह सिद्धान्त अथवा यह महातत्त्व ऐसा होना चाहिए जिससे यह बात समझ में मा जाय कि कब, किस हालत में, कानून के द्वारा शारीरिक दण्ड दिये जाने का नियम होना चाहिए, और कब, किस हालत में, न होना चाहिए। और इसने इस बात का भी निश्चय हो जाय कि समाज की राय का कब, किस हालत में, और कहां तक प्रतिबन्ध किया जाय। वह सिद्धान्त यह है समाज के किसी आदमी के काम-काज की स्वाधीनता में, एक अथवा बहुत आदमियों के रूप में, मनुष्यमान की दस्तन्दाजी का सिर्फ एक ही उद्देश, आशय या मतलब होता है। वह उद्देश, आशय या मतलब, आत्मरक्षाअपनी हिफाजत है। जितने सभ्य, अर्थात् सुधरे हुए, समाज हैं उनमें से किसी आदमी के अपर, उसकी इच्छा के विरुद्ध, सिर्फ इस मतलब से सत्ता या शत्ति मुनासिब तौर पर काम में लाई जा सकती है कि उस आदमी से दूसरों को नुकसान या तकलीफ न पहुँचे। स्वयं उस आदमी के शरीर या सन की रक्षा का उद्देश कोई चीज नहीं। सत्ता को काम में लाने में उस देश का सवाल नहीं किया जाता। किसी आदमी से कोई काम सिर्फ इस मतलब से कराना, या कोई काम करने से उसे सिर्फ इस मतलब से रोकना, बिला करने से उसे फायदा होगा; या ऐसा करने से उसे अधिक सुख मिलेगा; या ऐसा करना, औरों की राय में योग्य अथवा बुद्धिमानी का काम होगा; मुनासिब नहीं। उसे मना करने, उसे समझाने, उसके साथ वादविवाद या उत्तर प्रार्थना करने में इन बातों का उपयोग हो सकता है; परंतु बलपूर्वक उससे कोई काम कराने, अथवा, प्रतिकूल व्यवहार करने पर, उसे दण्ड देने में इन बातों से काम नहीं चल सकता। ऐसे मामलों में इस तरह की पाल युक्ति-संगत नहीं मानी जा सकती। जिस काम से उसे रोकना है काम ले यदि किसी दूसरे को कष्ट पहुंचने की सम्भावना है, तभी उस पर पर प्रयोग करना; अथवा उसे दण्ड देना, मुनासिब होगा। उसके व्यवहार
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पहला अध्याय।