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स्वाधीनता।

के साथ ही, उचित मालूम होता है। ऐसी भी बहुत सी जंची हुई बातें हैं जिनसे समाज के हित होने को विशेष सम्भावना रहती है। वे भी हर आदमी से बलपूर्वक, अर्थात् जबरदस्ती, कराई जा सकती हैं। एक उदाहरण लीजिए:—कचहरी में जज के सामने गवाही देने के लिए हर आदमी मजबूर किया जा सकता है क्योंकि जिस समाज में वह आराम से रहता है उसके फायदे या उसकी रक्षा के लिए उसका धर्म्म है कि वह भी सहायता करे। उसे समझना चाहिए कि वह भी समाज का एक अंश है और समाज की ही भलाई के लिए कानून के अनुसार बर्ताव किया जाता है। इसी तरह हर आदमी, विशेष विशेष बातों में, उदारता के काम के लिए भी विवश किया जा सकता है। उदाहरण के लिए किसी की जान बचाने, या असहायों पर जुल्म होते देख उनकी रक्षा करने, के लिए आदमी पर बल-प्रयोग करना मुनासिब है। मतलब यह कि जिस समय जो काम करना आदमी का धर्म्म, फर्ज या कर्तव्य है, और जिसे न करने से समाज की हानि, थोड़ी या बहुत हो सकती है उसके लिए वह हमेशा जिम्मेदार है। जो लोग यह समझते हैं कि आदमी कुछ न कुछ काम करके ही दूसरों को हानि पहुँचा सकता है, चुपचाप अर्थात् तटस्थ रहकर नहीं पहुंचा सकता, वे, भूलते हैं। दोनों तरह से औरों की हानि हो सकती है—औरों को तकलीफ पहुँच सकती है। जो आदमी दूसरे को लाठी से मारकर उसे चोट पहुंचाता है वह भी सजा पाने का काम करता है, और जो दूसरे को डूबता देख उसे बचाने की कोशिश न करके चुपचाप तमाशा देखता रहता है वह भी सजा पाने का काम करता है। इस लिए, दोनों हालतों में, समाज को हानि पहुँचाने का वह अपराधी है। हां, यह सच है कि पहले प्रकार से, अर्थात् कार्य द्वारा, किसी का अहित करने के कारण जो सजा दी जा सकेगी उसकी अपेक्षा चुपचाप बैठे रहने, अर्थात् कोई काम न करने, के कारण जिस सजा की जरूरत समझी जायगी उसे काम में लाने से अधिक खबरदारी दरकार होगी। अपने किसी अनुचित काम से दूसरों का अहित करने के कारण हर आदमी को जिम्मेदार समझना एक साधारण नियम है। पर दूसरे का अहित होता देख चुपचाप बैठे रहने—उसे टालने की कोशिश न करने—के कारण उसे जिम्मेदार समझना साधारण नियम नहीं; किन्तु निपातन, अपवाद या गुस्तसना बात है। परन्तु कभी कभी इस तरह के बहुत बड़े मौके आजाते हैं जिनके कारण इस अपवाद