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पहला अध्याय।

को काम में लाना, अर्थात् चुपचाप बैठने के लिए सजा देना, मुनासिब समझा जा सकता है। आदमीके बाहरी व्यवहारों से सम्बन्ध रखनेवाली जितनी बातें हैं उनके लिए हर आदमी उन लोगों के सामने हमेशा ही उत्तरदाता रहता है जिनसे कि उन बातों का सम्बन्ध है। यहाँ तक कि कभी कभी समाज के सामने भी वह उत्तरदाता समझा जाता है; क्योंकि समाज सब की रखवाली करता है। परन्तु, बहुधा, ऐसे मामलों में व्यक्ति विशेष पर जिम्मेदारी लादना विशेष कारणों से उचित नहीं होता। तथापि, इस विषय में कोई व्यापक नियम नहीं बनाये जा सकते ऐसी जिम्मेदारी कब उचित और कब अनुचित होगी, इस बात का निश्चय अपने अपने समय, स्थान और प्रसंग के अनुसार करना होगा। कोई कोई बातें ऐसी हैं कि यदि समाज, उन्हें अपनी अपनी समझ के अनुसार हर आदमी को, करने दे तो लोग उन्हें अधिक अच्छी तरह से कर सकें। पर, यदि, उन बातों के सम्बन्ध में समाज, अपनी शक्ति के अनुसार, किसी तरह का प्रतिबन्ध कर दे तो लोग उनको उतना अच्छा न कर सकें। कभी कभी जिन तकलीफों को दूर करने या जिन अनर्थों से बचाने के लिए समाज अपनी सत्ता को काम में लाने, या किसी तरह की प्रतिबंधकता करने, का इरादा रखता है उनकी अपेक्षा, सत्ता को काम में लाने या प्रतिबन्धकता करने से अधिक सख्त तकलीफें और अधिक भयंकर अनर्थ पैदा होने की सम्भावना होती है। ऐसे प्रसंग आने पर समाज की प्रतिबन्धकता उचित नहीं मानी जा सकती। ऐसी बातों की जिम्मेदारी आदमी की समझ और उसके भले बुरे के ज्ञान पर ही छोड़ देना चाहिए। उसीसे दूसरों की रक्षा, जहां तक हो सके, होने देनी चाहिए। पर हां, ऐसे मौकों पर आदमी को इस बात का खयाल रखना मुनासिब है कि मुझसे दूसरों को तकलीफ पहुंचने या उनका अहित होने, की जो सम्भावना है उससे बचाने का प्रबन्ध समाज नहीं करना। इसलिए मुझे स्वार्थ पर अनुचित दृष्टि न रखकर निष्पक्षपात होकर व्यवहार करना चाहिए। ऐसे समय में आदमी को अपना न्याय आप ही करना चाहिए, और इतना कड़ा करना चाहिए जितना कि एक जज भी यदि वह उसके सामने जाता, तो न करता।

जिन बातों का सम्बन्ध, प्रत्यक्ष या परोक्ष रीति से, सिर्फ दूसरों से ही है उन्ही का यहां तक विचार हुआ। अब कुछ ऐसी बातों का भी विचार किया