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स्वाधीनता।


यह कोई नया सिद्धान्त नहीं है; यह कोई नई बात नहीं है। बहुतों को तो यह स्वयंसिद्ध सा जान पड़ेगा। अर्थात् उनकी दृष्टि में इसकी उपयोगिता या योग्यता साबित करने की कोई जरूरत ही न मालूम होगी। परन्तु विचार करने से यह बात ध्यान में आ जायगी कि इस समय समाज में जिस तरह का व्यवहार जारी है और लोगों की राय जिस तरह की हो रही है, उसके सच्चे प्रवाह के यह सिद्धान्त कितना प्रतिकूल है। अपनी निज की रुचि के अनुसार लोग समझते हैं कि अमुक बात का होना समाज के लिए अच्छा है और अमुकका व्यक्ति-विशेष के लिए। इतना ही नहीं, किन्तु, उस अच्छी बात या अच्छी स्थिति को पाने की इच्छा से तदनुकूल कोशिश करने के लिए समाज और व्यक्ति दोनों—को लोग, अपनी ही अपनी रुचि के अनुसार विवश करते हैं—लाचार करते हैं। पुराने जमाने में लोकसत्तात्मक राज्यों के आदमियों की यह समझ थी कि हर आदमी के शरीर और मन, दोनों के व्यवहारों का प्रतिबन्ध करने से देश का बहुत फायदा होता है। इसीसे आदमी के छोटे छोटे खानगी मामलों तक में वे अधिकारियों के द्वारा की गई दस्तन्दाजी को मुनासिब समझते थे। इस तरह की समझ को उस समय के दार्शनिक, तत्त्वज्ञानी और और बड़े बड़े पण्डित भी ठीक बतलाते थे। अर्थात् इस तरह के खयालात का वे अनुमोदन करते थे। उस समय की स्थिति, उस समय की अवस्था, और तरह की थी। प्रजासत्तात्मक जितने राज्य थे बहुत छोटे छोटे थे। वे सब बहुधा बलवान् शत्रुओं से सब तरफ घिरे रहते थे। उनको हमेशा इस बातका डर रहता था कि ऐसा न हो कि बाहरी शत्रुओं की चढ़ाइयों या अपने ही देश के आन्तरिक विद्रोहों के कारण उनके राज्य का उलटपलट हो जाय। अपने बल, अपनी सत्ता, या अपनी शक्ति में जरासी भी शिथिलता आने देना वे अपनी स्वाधीनता के नष्ट हो जाने का कारण समझते थे। इसीसे शायद उनके खयालात ऐसे हो गये हों। इसीसे वे हर आदमी की खानगी बातों में भी दस्तन्दाजी करने लगे हों। इसीसे वे स्वाधीनता के चिरस्थायी नियमों का प्रचार करके उनसे फायदा उठाने के लिए न ठहरे हों। परंतु, इस समय राजकीय समाज बहुत बड़े बड़े हो गये हैं; अर्थात् देशों का विस्तार बढ़ गया है। धर्म्माधिकारी और राजा लोगों के अलग अलग हो जाने से छोटी छोटी खानगी बातों में पहले की तरह अब कानून को दस्तन्दाजी