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दूसरा अध्याय।

है कि यहां पर, इस विषय में; कोई विशेष बात कहने की जरूरत नहीं है। इँग्लैण्ड में ट्यूडर घराने ने १४८५ से १६०३ ईसवी तक राज्य किया। समाचारपत्र-सम्बन्धी कानून (इँग्लैण्ड में) उस समय जितना कड़ा था उतना ही यद्यपि अब भी कड़ा है तथापि इस बात का अब बहुत कम डर है कि राजनैतिक विषयों की चर्चा बन्द करने के लिए वह कानून धड़ाधड़ काम में लाया जायगा। और यदि कानून के मुताबिक जाबते की काररवाई की भी जायगी तो शायद ऐसे समय में की जायगी जब न्यायाधीश या राजमन्त्री, इस डर से कि कहीं विद्रोह न उठ खड़ा हो, कुछ काल के लिए अपनी सत्ता की मामूली मर्य्यादा, अर्थात् अधिकार की साधारण सीमा, का उल्लंघन कर जाते हैं। जिस देश की राज्य-व्यवस्था यथानियस चल रही है उसमें मामूली तौर पर इस बात की शंका करना ही ठीक नहीं कि राय जाहिर करने अर्थात् सम्मति देने, का प्रतिबन्ध करने की गवर्नमेण्ट बार बार कोशिश करेगी फिर चाहे गवर्नमेण्ट प्रजा के सामने पूरे तौर पर उत्तरदाता हो, चाहे न हो। हां, यदि खुद प्रजा ही किसी कारण से किसी सम्मति को न पसन्द करे—किसी बात को अच्छा न समझे—अतएव गवर्नमेण्ट उसका प्रतिबन्ध करे, तो बात ही दूसरी है।

मान लीजिए कि गवर्नमेण्ट का और प्रजा का मत एक है; उसमें किसी प्रकार का भेद नहीं; और प्रजा की इच्छा या प्रजा की राय के विरुद्ध कोई काम करने का गवर्नमेण्ट का जरा सी इरादा नहीं। पर, इस दशा में भी, मेरा यह मत है कि समाज को खुद, या गवर्नमेण्ट के द्वारा, किसीको दबाने या तंग करने का अधिकार ही नहीं है—हक ही नहीं है। मेरी समझ में तो किसीका दमन करने या उसे सताने की शक्ति या सत्ता का अस्तित्व ही अनुचित है। गवर्नमेण्ट को इस तरह की शक्ति या सत्ता को काम में लाने का हक ही नहीं; फिर चाहे वह गवर्नमेण्ट बहुत ही अच्छी हो चाहे बहुत ही बुरी। प्रजा की राय के खिलाफ इस तरह की शक्ति काम में लाना जितना मुजिर है इतना ही, नहीं, उससे भी अधिक मुजिर प्रजा की तरफ से, अर्थात् प्रजा की राय के मुताबिक, उसे काम में लाना भी है। कल्पना कीजिए कि एक को छोड़कर दुनिया भरके आदमियों की राय एक तरह की है और अकेले एक आदमी की राय दूसरी तरह की। यह भी कल्पना कर लीजिए कि उस अकेले आदमी का सामर्थ्य बहुत