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स्वाधीनता।


से सम्बन्ध रखनेवाली दलीलों को मन के सामने जरूर लाना चाहिए। ऐसी बातें बहुत ही थोड़ी हैं जिनका मतलब बिना विवेचना, टीका या स्पष्टीकरण के समझ में आ सकता है । इससे आदमी के मनोनिश्चय या भलेबुरे के समझने की शक्ति में भूल होने पर उसके जिस धर्म के द्वारा उसका सुधार, निरसन या निराकरण किया जा सकता है सारा दारोमदार उसी पर है । उस मनोनिश्चय का सब बल और सब महत्त्व उसी स्वभावसिद्ध मनुष्य-धर्म पर अवलम्बित है । अतएव उस मनोनिश्चय को भ्रम में पड़ने से बचाने के लिए अनुभव और विवेचनारूपी साधन आदमीको हमेशा अपने पास तैयार रखने चाहिए। तभी उस निश्चय पर विश्वास किया जा सकेगा; अन्यथा नहीं। किसी आदमीका निश्चय, निर्णय या मत यदि विश्वसनीय है तो क्यों? क्योंकि अपने निर्णय और अपने आचरण की समालोचना सुनने को वह हमेशा तैयार रहता है, क्योंकि जो कोई उसके खिलाफ कुछ कहता है उसे वह बुरा नहीं समझता । क्योंकि अपने चालचलन और खयालात की आलो- चना या टीका में जो कुछ ग्राह्य, न्याय्य या उचित जान पड़ता है उससे वह लाभ उठाता है; और जो भ्रान्तिमूलक या गलत जान पड़ता है उस पर वह विचार करता है और मौका भाने पर अपनी भूलें वह औरों को स्पष्ट करके बतलाता भी है । क्योंकि वह यह समझता है कि दुनिया में किसी चीज का पूरा पूरा ज्ञान प्राप्त करने का सिर्फ एक यही मार्ग है कि जितने आदमी अपने मत के विरुद्ध हों उनके कथन को, उनकी दलीलों को, मनुष्य ध्यान-पूर्वक सुने और उन सबका अच्छी तरह विचार करे । आजतक जितने ज्ञान वान हुए हैं उन्होंने इस तरीके के सिवा किसी और तरीके से ज्ञान नहीं सम्पादन किया; उनको जो कुछ अक्ल मिली है इसी तरह मिली है । सत्र तो यह है कि किसी दूसरे मार्ग से, किसी दूसरी तरकीब से, किसी और तरीके से, सज्ञान, बुद्धिमान या अक्लमन्द होना आदमी के लिए मुमकिन ही नहीं। अपनी राय का औरों की रायसे मिलान करके उसका शोधन करने और उसे पूर्णावस्था या कमाल दरजे को पहुंचाने की धीरे धीरे आदत डालने से ही अपनी राय के अनुसार काम करने में आदमी को किसी तरह का संशय या सङ्कोच नहीं होता । यही नहीं, किन्तु अपनी राय के सच्ची होने के सप्रमाण विश्वास का वही दृढ़ आधार होता है । अर्थात् अपने मत का दूसरों के मत से मुकाबला करके उसका संशोधन कर लेना मानों अपने