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दूसरा अध्याय।


मत के सच्चे होने की नीव को खूब मजबूत कर लेना है । क्योंकि अपने मत, निश्चय या निर्णय के विरुद्ध जितने आक्षेप स्पष्ट रूप से हो सकते हैं वे सब मालूम हो जाते हैं; आक्षेपों और प्रतिवन्धों को रोकने की कोशिश न करके उनके रास्ते को खुला रखने और उनके अनुसार अपने मत का संशोधन करने से विरोधियों को कुछ कहने के लिए जगह नहीं रह जाती है और जहां कहीं जिस किसीकी उक्ति में जो कुछ जानने लायक होता है वह जान कर उससे फायदा उठा लिया जाता है । अतएव, जिस आदमी या जिस जनसमुदाय ने अपने मत या अपने निश्चय को इस तरह की कसौटी पर नहीं कसा उसके किये हुए निर्णय की अपेक्षा अपने निर्णय या अपनी सारासार बुद्धि को अधिक विश्वसनीय और अधिक प्रामाणिक मान लेने का हक या अधिकार आदमी को प्राप्त हो जाता है ।

दुनिया में जो सबसे अधिक बुद्धिमान् हैं और जिनको अपने मत, निश्चय या निर्णय को सबसे अधिक विश्वसनीय मान लेने का अधिकार है वे भी जब अपनी राय को ऊपर बतलाई गई कसौटी पर कसने की जरूरत समझते हैं, तब, यदि, हम, थोड़े बुद्धिमान् और वहुत सूखों के समुदाय से बने हुए समाज की राय को वैसी ही कसौटी में कसने की जरूरत समझते हैं तो क्या बुरा करते हैं ? क्रिश्चियन धर्म में रोमन-कैथलिक-सम्प्रदाय सब सम्प्रदायों से अधिक अनुदार है-अर्थात् मतभेद को वह बहुत ही कम बरदास्त करता है । इस सम्प्रदाय में जब कोई साधु मरजाता है तब एक जलसा होता है। उसमें यह विचार किया जाता है कि उस मरे हुए साधु को महात्मा की पदवी देना चाहिए या नहीं । उस समय जो आदमी इस तरह की पदवी देने के खिलाफ कुछ कहता है उसे इस सम्प्रदाय के अगुवा “शैतान का वकील" कहते हैं । पर वे लोग इस मौके पर, "शैतान के वकील" की भी बातों को चुपचाप सुन लेते हैं । इससे यह सूचित होता है कि आदमी चाहे जितना पुण्यात्मा या पवित्र हो, जव तक उसके कृत्यों पर उसके पाप पुण्य विचार नहीं होता, और उसके विरोधी जो कुछ उसके खिलाफ कहते हैं उसे सुनकर उसका निर्णय नहीं कर लिया जाता, तब तक उस पुण्यशील पुरुप की गिनती भी महात्माओं में नहीं होती। देखिए, न्यूटन कितना बड़ा दार्शनिक और ज्ञानी था । पर उसके वैज्ञानिक और शास्त्रीय सिद्वान्तों पर लोग यदि आक्षेप न करते और उनकी खूब समालोचना न