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स्वाधीनता।


होती तो वे, इल समय, जितने अखण्डनीय और जितने सच्चे मालूम होते हैं उतने हरगिज न मालूम होते; और आदमी उन पर उतना विश्वास हरगिज न करते जितना वे इस समय करते हैं। जिन बातों को हम अत्यन्त विश्वसनीय और सच्ची समझते हैं उनको मनुष्यमात्र के सामने रखकर हमें यह कहना चाहिए कि यदि किसीमें शक्ति हो तो वह उनको झूठ साबित करे। हमको चाहिए कि हम लोगों को आह्वान करें, हम उनको चुनौती दें, कि यदि हमारी सम्मति संदीप हो तो वे उसका खण्डन करें। यदि किसीने हमारी ललकार को, हमारे प्रचारण को न मंजूर किया अर्थात् हमारी बात, को गलत साबित करने की न कोशिश की; या कोशिश करने पर यदि उसे कामयाबी न हुई, तो भी हमको यह न समझना चाहिए कि हमारी बात सच है; हमारा किया हुआ निश्चय विश्वसनीय है। हरगिज नहीं। उससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि आदमी की जितनी शक्ति है उतना करने में हमने कसर नहीं की जो कुछ सम्भव था वह हमने किया। अर्थात् सत्य के जानने के जितने मार्ग थे उनमें से एक की भी हमने उपेक्षा नहीं की सत्य को अपने पास तक पहुंचने के जितने रास्ते थे एक को भी रोक देने का हमने यंत्र नहीं किया। सत्य की प्राप्ति के सब दरवाजों को खुले रखने से हम इस बात की आशा कर सकते हैं कि यदि हमारे मत से भी अधिक सच्चा मत संसार में है तो जिस समय मनुष्य का मन उसे पाने का पात्र होगा-मनुष्य की बुद्धि उसे ग्रहण करने के योग्य होगी-उस समय वह आप ही आप मालूम हो जायगा। तब तक हमको इसीसे सन्तोष करना चाहिए कि अपने समय में जहाँ तक सत्यता की प्राप्ति संभव थी जहाँ तक हमने पा ली। मनुष्य प्रमादशील है; उससे भूल होती ही है। उसे सत्यता का इतना ही ज्ञान हो सकता है और उस ज्ञान की प्राप्ति का सिर्फ यही एक द्वार है।

आदमी इस बात को तो मानते हैं कि साधारण रीति पर अप्रतिबद्ध विवेचना, अर्थात् बेरोक विचार करने की स्वाधीनता, का होना अच्छा है। इसके समर्थन में प्रमाण देने और दलीलों को पेश करने की भी वे आवश्यकता समझते हैं। परन्तु आश्चर्य यह है कि सभी बातों के विषय में विधार करने की अप्रतिबन्धकता को वे अच्छा नहीं समझते। वे यह नहीं सोचते कि जो नियम व्यापक नहीं, जो नियम सब कहीं बराबर काम नहीं दे सकते, वे कहीं भी काम नहीं दे सकते। जो लोग यह कहते हैं कि जिन