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दूसरा अध्याय।

कोई शायद यह कहेगा, कि नई नई बातों को जारी करने, या नये नये मत चलाने, की कोशिश करनेवालों को हम लोग, अब, पहले की तरह जान से नहीं मार डालते। हमारे पूर्वज समाजशोधकों और धर्माचार्यों को बेहद सताते थे; उनको जीता नहीं छोड़ते थे। पर हम उनकी तरह नहीं हैं। हम वे जघन्य काम नहीं करते। हम तो ऐसों का आदर करते हैं; उनकी समाधियां तक बनाते हैं। इसका जवाब सुनिए। यह सच है कि अब हम लोग नास्तिक और पाखण्डी आदमियों का सिर नहीं काटते; उनकी गरदन नहीं मारते। और यह भी सच है कि जिन बातों से हमको सख्त नफरत है उनको जारी करने की इच्छा रखनेवालों को कानून के रूपले बहुत कड़ी सजा देना लोगों को अच्छा नहीं लगता; और ऐसी सजा से उन बातों के प्रचार में कावट भी नहीं हो सकती। तथापि यह अभिमान करना व्यर्थ है कि ऐसे आदमियों के लिए कानून में कोई सजा ही नहीं। कोई राय कायम करने-कोई सम्मति स्थिर करने के लिए यदि, आज कल, कानून में कोई सजा नहीं है, तो, कम से कम, उसे जाहिर करने उसे सब लोगों में फैलाने के लिए जरूर है। यही नहीं। किन्तु, आज कल, इस कानून के अनुसार काररवाई की जानेके भी उदाहरण, कहीं कहीं, देखे जाते हैं। इसले यह बात खयाल में नहीं आतीइसपर विश्वास नहीं होता कि आगे कोई समय ऐसा भी आवेगा जब कोई काररवाई इस कानून के अनुसार न होगी-अर्थात् जब वह रद समझा जायगा। सभी सांसारिक वातों में अत्यंत निर्दोष व्यवहार करनेवाले एक बहुत ही अच्छे चालचलन के आदमी को, १८५७ ईसवी में, कार्नवाला सूबे के लेशनकोर्ट से इहीस महीने की सजा हो गई। इस अभागी का कुसूर यह था कि इसने कुछ ऐसी बातें कहीं और एक फाटक पर लिखी थीं जो क्रिश्चियन धर्म के अनुयायियों को नागवार थीं। इस घटना के एक महीने के भीतर, ओल्ड बेली नास की कचहरी में, वहांके जज ने आदमियों को पञ्च (जूरीम्यन) बनाने से इनकार कर दिया। इतना ही नहीं, किंतु जज और एक वकील ने मिलकर उनमें से एक आदमी का बहुत बुरी तरह से अपसान तक किया। इन बेचारों का अपराध यह था कि इन्होंने सच सच यह बात कह दी थी कि किसी धर्म पर उनका विश्वास नहीं। इसी दलील के बल पर एक जज ने एक और आदमी की अरजी ही नहीं ली। यह आदमी