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स्वाधीनता।


विदेशी था और एक चोर के खिलाफ मुकदमा चलाना चाहता था। इस आदमी की चोरी की शिकायत इस बुनियाद पर नहीं सुनी गई की जिसका विश्वास परलोक या किसी देवता पर नहीं है (फिर चाहे वह देवता कोई क्यों न हो या कैसा ही क्यों न हो) वह कायदे के मुताबिक कचहरी में जज के सामने गवाही नहीं दे सकता। ऐसा करने के लिए उसे कानून की रोक है। इल तरह के कानून बनाना, या ऐसी काररवाई करना, मानों इस बातको पुकारकर कहना है कि ऐसे आदमियों पर आईन का जोर नहीं चल सकता और न्यायालय एसों की रक्षा भी नहीं कर सकता। यदि उनको कोई लूट ले, या चोट पहुँचावे, और उस समय दूसरे आदमी हाजिर न हों या हाजिर आदमियों में से सब उन्हींके मत के हों, तो उनकी फरियाद न सुनी जायगी; उनका न्याय न होगा; और अपराधियों को दण्ड भी न दिया जायगा। इससे यह भी जाहिर होता है कि यदि धार्मिक आदमियों को कोई लूट ले, या मार पीट करे, और उस समय गवाही देने के लिए देवताओ पर विश्वास न करनेवाले नास्तिकों के सिवा और कोई हाजिर न हो तो ये धर्मशील आदमी भी न्याय से वञ्चित रहें। यह सब इस लिए कि जो आदमी परलोक पर विश्वास नहीं करते उनकी शपथ-उनकी हलफ-व्यर्थ है। उसकी कुछ भी कीमत नहीं। जो लोग ऐसा समझते हैं वे इतिहास से बहुत ही कम परिचित हैं। मैं समझता हूं कि इतिहास का उन्हें बिलकुल ही ज्ञान नहीं। क्योंकि इतिहाससे यह बात साफ जाहिर है कि हर जमाने में जितने नास्तिक हुए हैं-परलोक और देवताओं पर न विश्वास करनेवाले जितने पाखण्डवादी हुए हैं-उनमें से अनेक अत्यन्त प्रामाणिक और इजतदार थे। और इस समय भी, सदाचार और सदगुणों के कारण जो लोग संसार में सबसे अधिक नामवर हैं उनमेंसे बहुतों को न परलोक ही की परवा है और न देवताओं ही की। यह बात यदि सबको नहीं मालूम तो इन लोगों के मित्रों को तो जरूर ही मालूम है। जिनको जरा भी समझ है वे कदापि इस बातको न मानेंगे कि नास्तिकों की शपथ व्यर्थ है; नास्तिको की गवाही एतबार के काबिल नहीं; नास्तिक प्रामाणिक नहीं। नास्तिकों के विषय में ऐसा नियम बनाना स्वतोविरोधी है: वह खुद ही अपना खण्डन करता है; वह अपनी जड़ अपने ही हाथ से काटता है। क्यों? सुनिए। इस खयाल से नास्तिकों की गवाही नहीं ली जाती कि वे झूठ बोलते है!