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स्वाधीनता।


पादन करने में उसकी विवेचना करने में, उसकी जरूरत बतलाने में उनको उलटा मजा मिलता है। जिस बात का जिक्र यहां पर हो रहा है वह इसी विलक्षणता का एक उदाहरण है। विचार और विवेचना की स्वाधीनता को कानून के द्वारा बन्द करने के बहुत ही निंद्य उदाहरण यद्यपि बहुत दिनों से देखने में नहीं आये, तथापि, समाज के खयालातमें स्थिरता न होने के कारण हम यह नहीं कह सकते कि वैसे उदाहरण अब कभी न होंगे-वे हमेशा के लिए बन्द हो गये। यह बड़े अफसोस की बात है। आज कला के समाज की विलक्षण अवस्था है; उसकी अजीब हालत है। किसी नई हितकर बात को जारी करने की कोशिश से व्यवस्थित रीति पर चलनेवाले व्यवहाररूपी रथ में जैसे गड़बड़ पैदा हो जाती है, वैसे ही किसी पुरानी अहितकर बात में फेरफार करने की कोशिश से भी गड़बड़ पैदा हो जाती है। बहुत आदमी इस बात का घमण्ड करते हैं कि इस समय धर्म का पुनरुज्जीवन हो गया है-धामिक विपयों में विशेष उन्नति हो गई है। यह किसी कदर सच है; 'परन्तु उसके साथ ही एक बात यह भी हुई है कि अशिक्षित और अनुदार लोगों के हृदय में हठधर्मी भी पैदा हो गई है-अर्थात् बिना समझे बूझे • अपने धर्म का आग्रह भी उनमें बेतरह बढ़ गया है। फिर, एक बात यह भी है कि इस देश की मध्यमस्थिति के आदमियों के खयालात में, उनकी मनोवृत्ति में, असहनशीलता या क्षमाभाव का अंकुर भी बड़ी तेजी से उग आया है। वह अब तक जरा भी मलिन नहीं हआ। उसकी प्रेरणा से नास्तिक अथवा पाखण्डवादी आदमियों को सताना इस स्थितिवालों को अब तक उचित जान पड़ता है। अतएव बहुत ही थोड़ी उत्तेजन मिलने पर ये लोग नास्तिक और धर्महीन माने गये आदमियों को खुल्लमखुल्ला तंग करने से बाज नहीं आते। मध्यम स्थिति के लोगों को जो धामिक बातें अच्छी लगती हैं, जो मत उनको पसन्द हैं, जिन चीजों को वे बहुत जरूरी जानते हैं उनकी प्रतिकूलता-करनेवालों को तंग करना वे अपना कर्तव्य समझते हैं। इसी सबब से, इस देश में, सानसिक स्वाधीनता का वास नहीं है। कानुन के द्वारा बहुत दिनों से जो दण्ड निश्चित किये गये हैं उनमें सत्र से अधिक हानिकर और बुरी बात यह है कि वे सामाजिक कलङ्ग को और भी अधिक मजवृत करते हैं। यह सामाजिक कलय, यह सामाजिक लांछन, दरअसल बहुत विकट है। क्योंकि, और देशों में जो बातें कानून के अनुसार दण्डनीय