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स्वाधीनता।


सोचना चाहिए कि नास्तिकों के मत की पूरी परी और उचित विवेचना का कभी मौका न देने से उनके मत का प्रचार जरूर नहीं होने पाता; परन्तु, इसके साथ ही, उनके बुरे और झूठे खयालात भी उनके दिल से दूर नहीं होते। यदि विवेचना का मौका दिया जाय तो बहुत सम्भव है कि नास्तिकों के वेसिरपैर के खयालात दूर हो जाय। जिस विवेचना से रूढ़धर्म के अनुकुल:-चिरकाल से पूज्य माने गये धर्म के अनुकूल-सिद्धान्त नहीं निका लते उसे रोक देने से नास्तिकों का मानसिक हास नहीं होता। उनकी विचार-बुद्धि को जरा भी धक्का नहीं पहुंचता। जो लोग ऐसा नहीं समझते वे गलती करते हैं । इस तरह की रोक से नास्तिकों को हानि नहीं पहुंचती, पर जो नास्तिक नहीं हैं, अर्थात् जो पुराने धर्मके अभिमानी हैं, उन्हींको हानि पहुंचती है; और बहुत अधिक पहुंचती है। क्योंकि पुराने धर्म के अभिमानी इस डर से विवेचना बन्द कर देते हैं कि कहीं पाखण्डी आदमियों के विचार हमारे मन में न घुस जॉय; कहीं ऐसा न हो कि हम भी उन्हीं के सत में आ जाँय। इसका फल यह होता है कि उनका मन बहुत ही संकुचित हो जाता है; उनकी विचारशक्ति बहुत ही कमजोर हो जाती है। यह बहुत बड़ी हानि है। ऐसे रूढ़-धर्माभिमानी निडर होकर, उत्साह और उत्तेजना-पूर्वक, स्वाधीनविचाररूप सागर के भीतर पैर रखने की हिम्मत ही नहीं करते। उनको हर घड़ी यह डर लगा रहता है कि स्वाधीनता पूर्वक विचार करने से, कायल होकर, कहीं हमको रूढ धर्म और रूढ़ नीति के खिलाफ कोई बात न स्वीकार करनी पड़े; अतएव हमें कहीं कोई यह न कहे कि ये बदचलन और बेधर्म हो गये। इस तरह के होनहार, परन्तु डरपोक स्वभाव के नौजवान आदमियों से जगत् का जो नुकसान होता है उसका अन्दाज कौन कर सकेगा? कभी कभी ऐसे होनहार पर भीर लोगों में एक आध शुद्धान्तःकरण, सत्यानुयायी, मनोदेवता-भक्त, किसीसे न डरनेवाला भी देख पड़ता है। कुशाग्रबुद्धि, समझदार और सूक्ष्मदर्शी होने के कारण उससे 'चुप नहीं बैठा जाता। वह जन्म भर अपनी तीव्र बुद्धि को मिथ्या और दाम्भिक बातों की विवेचना में खर्च करता है। रूढमतों को अपने अन्तःकरण और सच्ची विचार-परम्परा के अनुकूल साबित करने में वह अपने सारे बुद्धि-कौशल और अपनी सारी कल्पनाशक्ति को काम में ले आता है। परन्तु तिस पर भी उसे कामयाबी नहीं होती। क्योंकि जो बात सच नहीं