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स्वाधीनता।


का यह खयाल है कि बड़े बड़े सिद्धान्तों के खिलाफ, जुबान हिलाना मना है; जहां लोग यह समझते हैं कि बड़ी बड़ी बातों पर जो कुछ विचार होने को था हो चुका, अब कुछ भी बाकी नहीं रहा, वहां मामूली आदमियों में बुद्धि की तीक्ष्णता और विचारों की उच्चता के होने की आशा रखना पागलपन है। इतिहास देख लीजिए; उसमें आपको इस बात के पोषक बहुतसे दृष्टान्त मिलेंगे। जहां मनुष्यों के मन में उत्साह और उत्तेजना को उत्पन्न करनेवाले बड़े बड़े और महत्त्वपूर्ण विपयों पर वाद-विवाद नहीं हुआ वहां सर्व-साधारण के मत की मलिनता कभी नहीं गई; उसमें कभी तेजी नहीं आई; उसके मनन करनेकी जड़ कभी मजबूत नहीं हुई। पूर्वोक्त विषयों पर वाद-विवाद करने से साधारण बुद्धि के आदमी भी बड़े बड़े विचारशील और बुद्धिमान लोगों की, कुछ कुछ, बराबरी करने लगते हैं। अतएव ऐसे विवाद का जहां कहीं अभाव हुआ वहाँ मासूली आदमी बड़े बड़े विचारवान् पुरुपों की जरा भी बराबरी नहीं कर सके। प्राटेस्टेण्ट धर्म के जारी होने के बाद ही इसका एक उदाहरण योरप में हुआ। वह याद रखने लायक है। अठारहवें शतक के द्वितीयाई, अर्थात् १७५० ईसवी, के वाद जिस समय फ्रांस में गदर और अमेरिका में प्रजासत्तात्मक राज्य स्थापन हुआ उस समय भी यही दशा देखने में आई थी। भेद इतना ही था कि यद्यपि वह चलाविचलता कई देशों में फैल गई थी तथापि इंगलैंड में उसका प्रवेश नहीं हुआ था; और जो लोग आधिक सभ्य और शिक्षित थे उन्हीं पर उसका असर हुआ था; सारे समाज पर नहीं। मामूली आदमी उस चल-विचल से बरी थे। तीसरी विचारचञ्चलता जर्मनी में उस समय उत्पन्न हुई थी जिस समय फिस्ट और गेटी नाम के तत्त्वज्ञानियों ने अपने विचारोंका प्रचार किया था। पर यह चल-विचलता बहुत दिनोंतक नहीं रही। कुछ ही काल में फिर स्थितिस्थापकता हो गई। जिन नई बातों का प्रचार इन तीनों समयों से हुआ वे एक ही तरह की न थी-सब एक दूसरी से भिन्न थीं। परन्तु तीनों उदाहरणों में एक बात ऐसी भी थी जो सत्र में बराबर पाई जाती थी। वह यह कि पौराणिक सत्ता तोड दी गई थी, अर्थात् “बाबावाक्यं प्रमाणं" वाला सिद्धान्त लोगों ने त्याग दिय था। प्रत्येक उदाहरण में मानसिक विचारों की सख्ती को लोगों ने कम कर दिया था। मतलब यह कि सख्ती की परवा न करके सब लोग थोड़ी बहुत