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स्वाधीनता।


वे अपने मन में यह समझने लगते हैं कि उसके खिलाफ वाद-विवाद होने देने से समाज को कुछ भी लाभ न होगा, हानि चाहे कुछ हो जाय। जहां इस तरह के आदमियों की प्रबलता होती है, जहां इस तरह के आदमियों का प्रभाव बढ़ जाता है, वहां विचार, विवेचना और बुद्धि के बल से प्रचलित मतों का लोप कर देना बहुत मुशकिल होता है-मुशकिल क्या, प्रायः असम्भव हो जाता है। परन्तु अज्ञान और अविचार से उनका लोप---उनका उल्लंघन हुआ करता है। इसमें कोई सन्देह नहीं। विवेचना और वादविवाद को बिलकुल ही बन्द कर देना गैरमुमकिन बात है; ऐसा होना बहुत ही कम सम्भव है। अतएव जहां विवेचना को थोड़ी सी भी जगह मिली तहां बहुत कमजोर दलीलों के भी सामने इस तरह की बातों को हार मान कर भागना पड़ता है। क्योंकि उन बातों पर लोगों का दृढ़ विश्वास नहीं रहता। सत्यासत्य के विषय में दिल से विचार करने के पहले ही उनको मान लेने से उन पर दृढ़ विश्वास हो कैसे सकता है? अच्छा इस बात को जाने दीजिए। मान लीजिए कि सही राय या सच बात मनमें हमेशा स्थिर होकर रहती है, अतएव विरुद्ध दलीलों से भी वह अपनी जगह से नहीं हिलती। अर्थात् आदमी ने अपने मनमें जिस बात को सच और सही मान लिया है वह यद्यपि सिर्फ मिथ्या-विश्वास के कारण उसे वैसी मालूम होती है तथापि उस विश्वास के बहुत ही दृढ़ हो जाने के कारण उसके खिलाफ दी हुई दलीलों का उस पर कुछ असर नहीं होता। इसमें उसका क्या अपराध है? इसका यह उत्तर है कि जिस मनुष्य में सच और झूठ के जानने की शक्ति विद्यमान है उसको चाहिए कि इस तरह वह अपने मत न स्थिर करे। सत्र के जानने का यह तरीका नहीं है। इस तरह मत-स्थापना करना, इस तरह राय कायम करना, कदापि इष्ट नहीं। इस तरह का विश्वास सत्य ज्ञान नहीं कहा जा सकता। यह निरा मिथ्याविश्वास है। यह किसी बात को सिद्ध करने के कहे गये शब्दों को आंख मूंदकर मान लेना है। और कुछ नहीं।

आदमी की बुद्धि और विवेक-शक्ति को सुधारने और उसकी उन्नति करने की बड़ी जरूरत है। इस बात को सभी कबूल करते हैं। प्राटेस्टेंट सम्प्रदाय के अनुयायी भी इसे मानते हैं। अतएव जिन बातों से आदमी का इतना घनिष्ट सम्बन्ध है और जिनके विषय में अपनी तबीयत के अनुसार मत निश्चित करना आदमी के लिए एक बहुत ही जरूरी बात है, उन धर्म