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दूसरा अध्याय।


सम्बन्धी बातों के विचार में यदि आदमी अपनी बुद्धि और विवेक-शक्ति से काम न ले तो ले कहाँ? अपनी बुद्धि, अपनी समझ और अपनी विवेक शक्ति को उन्नत और संस्कृत करने का सबसे अच्छा मार्ग आदमी के लिए यह है, कि वह अपने मत में दृढ़ हुई बातों के प्रमाणों का ज्ञान प्राप्त करे। उसे इसकी विवेचना करनी चाहिए कि जो मेरा मत है उसके सही होने का क्या प्रमाण है? जिन विश्वासों के सम्बन्ध में सच राय कायम करना आदमी के लिए बहुत ही जरूरी बात है उनके प्रतिकूल किये गये छोटे छोटे आक्षेपों का समाधान करने की तो शक्ति उसमें होनी चाहिए। यदि और अधिक न हो तो इतना तो जरूर ही होना उचित है। जिस बात को जो सच समझ रहा है उसे झूठ साबित करनेवालों की मोटी मोटी दलीलों का तो खण्डन करने की योग्यता उसमें होनी चाहिए। इस पर शायद कोई यह कहे कि "अच्छा, यदि तुम ऐसा कहते हो तो आदमियों के जो मत हैं उनके प्रमाण उन्हें क्यों नहीं सिखलाते? प्रतिकूल दलीलों के खण्डन करने के झगड़े में क्यों पड़ते हो? उन्होंने अपने मतों का खण्डन नहीं सुना; इससे तुम यह नहीं कह सकते कि तोते की तरह उन्होंने अपने सिद्धान्तों को रट लिया है; उनपर विचार नहीं किया। जो लोग रेखागणित पढ़ते हैं वे सिर्फ उसके सिद्धान्त ही नहीं रट लेते; उनके प्रमाण भी वे समझ लेते हैं। किसीको उनके विरुद्ध कुछ कहते, या किसीको उनको झूठ ठहराने की कोशिश करते, यदि उन्होंने नहीं देखा तो क्या तुम यह कह सकते हो कि उन्होंने सिर्फ तोते की तरह उन सिद्धान्तों को रट लिया है?" बेशक तुम्हारा कहना बहुत ठीक है। गणित एक ऐसी विद्या है कि उसका इस तरह ज्ञान प्राप्त कर लेना काफी होता है; क्योंकि उसके खिलाफ दलीलें पेश करने के लिए बिलकुल ही जगह नहीं रहती। गणितशास्त्र के सिद्धान्तों को सही साबित करने के लिए जो प्रमाण दिये जाते हैं वे हमेशा एक-तरफा होते हैं; एक ही पक्ष से उनका सम्बन्ध रहता है। अनुकूल और प्रतिकूल दोनों पक्षों से नहीं। यह उनमें विलक्षणता है। उन पर कोई आक्षेप ही नहीं हो सकते; उनके खिलाफ पुछ कहने की जरूरत ही नहीं पड़ती। अतएव जब प्रतिकूल विवेचन ही नहीं होता, जब खिलाफ दलीलें ही नहीं पेश की जाती, तब उनका जवाब देने की भी जरूरत नहीं पड़ती। परन्तु जिन बातों में मतभेद सम्भव है-जिन बातों में सबकी राय नहीं मिलती-उनकी सत्यता पर..