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दूसरा अध्याय।


तक नहीं लिया, उसे अपनी बात को सही सान लेने-अपने मत को ग्राह्य समझने का कोई अधिकार सही; कोई आधार नहीं। ऐसे आदमी को चाहिए कि वह उस विषय में किसी तरह का निश्चय ही न करे। क्योंकि उसकी राय कोई राय नहीं; उसका निश्चय कोई निश्चय नहीं। यदि वह इस बात को न मान कर सिद्धान्त स्थिर करेगा तो मैं यह कहूंगा कि उसने बिना किसी आधार के वैसा किया; उसने "बाबावाक्यं प्रमाणं" सूत्र को स्वीकार किया; अथवा, अकसर लोग जैसा करते हैं, जो मत खुद उसे सबसे अधिक पसन्द था उसे ही उसने निश्चित किया। उसके लिए यह काफी नहीं कि उसीके गुरु, या उपदेशक, या सलाहकार उसके विरोधियों के आक्षेपों को उसके सामने पेश करें; वहीं वे उनका खण्डन करें; और वह उस खण्डन को चुपचाप बैठा हुआ सुने। यह कोई न्याय की बात नहीं। इससे काम नहीं चल सकता। इस तरकीब से विरोधियों के आक्षेपों का न्यायसङ्गत खण्डन नहीं हो सकता। इस तरीके से वे आक्षेप सुननेवाले की समझ में भी अच्छी तरह नहीं आ सकते-उसके दिल पर उनका असर ही नहीं हो सकता। जिन्होंने वे आक्षेप किये हैं उन्हींके मुँह से उन्हें सुनना चाहिए। जिनका उन पर विश्वास है वही उनको अच्छी तरह समझा सकते हैं। उनका खण्डन करने के लिए उनको सही साबित करने के लिए उन्हीं को सच्चा उत्साह रहता है और वही उनकी सिद्धि के लिए जी जान लड़ाकर कोशिश भी करते हैं। जो लोग आक्षेप करते हैं वे प्रयत्नपूर्वक उनको ऐसा रूप देते हैं जिसमें वे अपने बाहरी रंग ढंग से भी लोगों को अपनी तरफ खींच लें और दिल में भी खूब असर पैदा कर सकें। इसीसे उनको उन्हीं लोगों से सुनना मुनासिब है। ऐसा न करने से यह बात अच्छी तरह कभी ध्यान में नहीं आ सकती कि जिस विषय पर वाद-विवाद हो रहा है उसकी सच्ची उपयोगिता-उसके सच्चे रूप-को पहचानने में कितनी कठिनाइयां आती हैं और किस तरह से वे दूर की जा सकती हैं। जिनको हम सुशिक्षित कहते हैं; जिनको हम पढ़े लिखे समझते हैं। उनमें से फी सैकड़ा निन्नानवे की दशा ऐसी ही शोचनीय है। जो लोग अपनी राय को सही साबित करने के लिए बड़ी फुरती से दलीलें पेश कर सकते हैं; उनकी भी यही दशा है। ऐसे आदमियों के सिद्धान्त सही हो सकते हैं; पर गलत भी हो सकते हैं। चाहे अपने सिद्धान्तोंके सही होने में उनको