पृष्ठ:हमारी पुत्रियाँ कैसी हों.djvu/१३

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२ पुत्र की अपेक्षा कन्या के ही शरीर में मानवीय कलाओं का पूर्ण विकास हुश्रा है । शारीरिक और प्रास्मिक दोनों ही प्रकार के अवयव पूर्ण रूप से कन्या के अंग में हैं, इसीलिये कन्यायें अत्यन्त पवित्र, अत्यन्त पूज्य और अत्यन्त स्नेह करने योग्य हैं। व्यवहारिक जीवन में हम यह नित्य देखते हैं कि घरों में कन्याएँ लड़कों की अपेक्षा निकृष्ट भोजन-वस्त्र पाती हैं, वे प्रायः घर भर की जूठन पर पलती हैं । वे बराबर के भाइयों के निष्ठुर अत्याचार सहती हैं, फिर भी वे मधुर, सहनगील और त्याग भाव से श्रोत-प्रोत हुई रहती हैं। स्थानी होने पर दिन-दिन उनका शील और सहनशीलता बढ़ती है । माता- पिता चाहे भी जैसे व्यक्ति के साथ उन्हें ब्याह देते हैं--वे पूरा कष्ट पाकर, जीवन नष्ट होने पर भी कभी माता-पिता के प्रति कठोर नहीं बनतीं । जबकि पुत्रगण बहुश्रों के गुलाम होकर माता-पिता को ठोकरें मारते हैं। अब से कुछ वर्ष पूर्व कन्याओं को पढ़ाना पाप समझा जाता था । परन्तु सदैव ही से भारत में कन्याएं इतनी अपढ़ न धीं। प्राचीन काल में वे ब्रह्मविद्या की अधिष्ठात्री महापण्डिता, प्रबल वाग्विद्या विलासिनी होती थीं । वे सहस्रों विद्वानों की सभाओं में शास्त्रार्थ करके दिग्विजयी पण्डितों के दांत खट्टे करती थीं। संसार के जीवन क्षेत्र में वे अबाध रीति से पुरुषों के समान ही अधिकार रखती थीं । खेद है कि हिन्दू- समाज ने स्वार्थ और इन्द्रिय-वासना में फंस कर स्त्रियों को विलास की चीज बनाया और उन्हें सब भांति से जकड़ कर विवश कर दिया । परन्तु गत २५ वर्षों में कन्याओं को कितनी उन्नति हुई है इस विषय पर गम्भीर विचार करने की आवश्यकता है। श्राज हजारों कन्याएँ १८- २० वर्ष की आयु तक कुमारी रह कर उच्च शिक्षा पाकर सरस्वती की उपासना कर रही हैं, उनका जीवन धन्य और सार्थक हो रहा है । आज लाखों कन्यानों में साहस और तेज आ गया है, अब वे यूंघट के जान