तीसरा अध्याय कन्याओं की शिक्षा 'पढ़ लिख कर कन्याएं बिगड़ जावेंगी, यह कहने के दिन अब नहीं रहे । कन्याओं को लड़कों से भी अधिक सावधानी से शिक्षा देने की जरूरत है, यह बात संसार के विद्वान् मान गए हैं। कन्याओं की शिक्षा में लड़कों की शिक्षा की अपेक्षा कुछ विशेषता होनी चाहिए। इसके दो कारण हैं-एक तो यह कि कन्याओं को पढ़ने का समय बहुत कम मिलता है । वे १६-१७ वर्ष की अवस्था में तो गृहस्थी में फंस जाती हैं, इतने समय में ही इन्हें नित्य जीवन और गृहस्थ सम्बन्धी बहुत से काम सीखने पड़ते हैं । दूसरे उनके मस्तिष्क के विकास की अपेक्षा भावुकता की अधिक श्रावश्यकता पड़ती है। इन्हें न तो कोई नौकरी करनी पड़ती है न कोई गम्भीर तात्विक कार्य । प्रायः उन्हें गृहस्थी के कार्य में ही लग जाना पड़ता है। इसलिए लड़कों की अपेक्षा इनकी शिक्षा भिन्न प्रकार की होनी चाहिए। जिन कन्याओं के माता-पिता सम्पन्न हों और उन्हें पुत्र की भांति उच्च शिक्षा दे सकते हों, जो अपनी पन्तान को सर्व-साधारण की अपेक्षा अधिक उन्नत कर सकने की क्षमता रखते हों, जिन्हें लोकाचार की पर्वा न हो, उन्हें अवश्य ही अपनी कन्याओं को उच्च श्रेणी की विदुर्श बनाना और उच्च पदों पर पहुंचाना चाहिए। परन्तु साधारणतया कन्याएं विवाह होने तक पाली जाती है, और वे श्रादर्श गृहिणी बनें-यही लोगों का उनके लिए लक्ष्य रहता है । ऐसी दशा में कन्याओं को अत्यन्त विचार-पूर्वक उत्तमता से शिक्षा देनी चाहिए। छोटी बालिकाओं की शिक्षा का प्रारम्भ कहानियों द्वारा होना चाहिए। कहानियाँ सुनाई जा सकती हैं । सर्व प्रश्रम उन्हें पशु-पक्षियों की छोटी- छोटी कहानियाँ-जो अधिक से अधिक ५ मिनट में समाप्त हो जाय-
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