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पृष्ठ:हमारी पुत्रियां कैसी हों.djvu/१६०

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साड़ियाँ खरीदने की इच्छा-बनी रहती है। कन्याएँ सयानी होते ही वस्त्रों के चाव को मन में धारण कर लेती हैं। वास्तव में व्यर्थ कपड़ों का इतना जमघट एक भारी फजूलखर्ची और परले दर्जे की बुराई है। वढ़िया साड़ियाँ भी जी का जंजाल हैं। उनकी एक बार की धुलाई का खर्चा ही एक साधारण साड़ी के मूल्य के बराबर होता है । यदि साधारण खद्दर की या मिल की ही सुन्दर साड़ियाँ ली जाँय-जो सरलता से धुल सके तो यह बहुत ही उत्तम बात है। आज कल बहुत सस्ती और बहुत सुन्दर सूती साड़ियाँ बाजार में आने लगी हैं। और यदि वे सुघड़ाई से पहनी जाय तो बढ़िया साड़ियों की तरफ मन ही न ललचे। इसके सिवाय सीधा-सादा स्वच्छ जीवन भी आत्मा को आनन्द और तृप्ति देने वाला है। उससे सदैव सन्तोष होता है। घर का रुपया बचता है। यह समझना बिल्कुल भूल की बात है कि वस्त्रों से शरीर की शोभा बढ़ती है। यद्यपि एक अंश तक तो ऐसा है, परन्तु शरीर की वास्तविक शोभा अच्छे स्वास्थ्य से बढ़ती है। योरोप में कुछ समय पूर्व स्त्रियां भांति-भांति के वस्त्रों द्वारा अपने शरीर की शोभा बढ़ाया करती थीं-पर अब वे समझ पाई हैं कि शोभा की वृद्धि का उपाय तो तन्दुरुस्ती की रक्षा करना है जो व्यायाम और नियमित आहार-विहार से ही उत्पन्न हो सकती है। कपड़ा वर्ष में २ या ३ वार इकट्ठा खरीद लेना चाहिए। इससे माल अच्छा और सस्ता मिल जाता है जो लोग फुटकर दूकानदारों से जव जी चाहे सस्ता माल खरीदा करते हैं वे सदा घाटे में रहते हैं।