अध्याय ग्यारहवाँ पुत्रियों को स्वर्ण उपदेश १-पुत्रियों, तुम समुद्र की भाँति गम्भीर, फूल की भांति कोमल, पर्वत की भाँति अचल और चाँदनी की भाँति पवित्र रहो। २--तुम सदा खुश रहो, सत्य बोलो, चोरी, हिंसा, छल, पाखण्ड से रहो। ३-सुसराल में जाकर पति के परिवार की यथोचित प्रेम और लगन से सेवा करो, सास सुसरों को अपने गुणों का प्रशंसक बनालो । गृह कर्म और चतुराई एवम् मिष्ट भाषण से यह काम होगा। ४-मान कभी न करना, रूठना-मचलना दो हृदयों में सेद डाल देता है, इससे प्रेम का पौदा सूख जाता है और घृणा का कीड़ा लग जाता है। बेटियों, तुम सुसराल में कभी मान न करना, कभी न रूठना । यदि तुम्हारी इच्छा और रुचि के विपरीत भी कुछ हो तो उसे सहन करना । इसी में भलाई है। ५--देवरानी, जिठानी, ननद और उसके बालकों से सदा प्रेम करना, यदि वे उन्हे झिड़के भी तो तुम उन्हें प्यार करना। ६-हमेशा शौकीनी से बचना । हाँ शरीर को सदैव स्वच्छ रखना-कपड़े सदा स्वच्छ पहनना। ७-जहाँ तक हो घर का काम हाथों से करना। पीसने कातने,
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