सभ्यता का विकास नहीं हुआ था, और शान्त रवभाव मुनि लोग केवल फल आहार करके ही अपने स्वाभाविक जीवन कों व्यतीत करते थे तब जीवन कैसे स्वस्थ्य, आनन्दमय और सरल थे। मस्तिष्क कैसे मेधावी थे। जगत् के ज्ञान के आदि देवता वेद, गूढ दर्शन, शास्त्र और गम्भीर उपनिपद उन फलाहारी तपस्वियों के स्वच्छ मस्तिष्क की उपज थी। रोग, शोक, अल्पायु, दौर्बल्य, चिन्ता क्रोध, भय, तमोगुण का चिन्ह तव न था। मनोरम तपोवनों में ऋषिगण ऊषा की मोहक लाली में कुशासन पर बैठे सूर्य पर दृष्टि दिये पवित्र साम गान करते थे। फलाहार करते और अनन्तं भविष्य के मानव पुत्रों के लिए'गूढ़ अध्यात्म की रत्न राशि संचय करते थे। कैसे 'पुण्यमय वे दिन थे। उनकी स्मृति भी कैसी पुण्य प्रतीत होती है। ज्यों ज्यों सभ्यता का उदय होता गयां, मनुष्य के खानपान रहन सहन में चटक मटक और वनावट आती गई। मनुष्य इन्द्रियों के भोगों में फंसकर अनेक प्रकार से विषय लोलुप हुआ। इसका यह परिणाम हुआ कि रोग, शोक, अल्पायु और वेदना मनुष्य की तकदीर में लिखी गई । छोटे छोटे पक्षियों को देखो कि कितने फुर्तीले और चैतन्य रहते हैं । कच्चे ज्वार, बाजरे और चने के दाने को बड़ी सरलता से खा और' पचा जाते हैं । घोड़े, गधे, खच्चर और दूसरे परिश्रमी जानवरों को देखो कि उनके शरीर कैसे बलिष्ट और नीरोग हैं और संसार के सुख में जितना भोग उन्हें भोगने की मनुष्य स्वतन्त्रता देता है,उसी में वे कितना ग्रानंद प्राप्त करते हैं। बच्चों के पैदा होने में स्त्रियों को कितना कष्ट होता है और उनमें कितनी मर जाती या अपाहिज हो जाती हैं। उनकी दुखमय अवस्था का जव पशु पक्षियों की प्रसव वेदना की सरलता से मुकाविला किया जाता है तब मनुष्यों के भाग्यों पर शोक होता है।
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