पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१५२

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उसने लांधे धीरे-धीरे प्रत्तर - लौह-ताम्र मन्यन्तर, हुई विस्तृता ज्ञान - मेपला, विकसित हुआ थाहा - अन्य नर, बना चुका है निखिल प्रकृति को अपनी दासी, यह राजेश्वर, किन्तु अभी तक कर न सका है अपने वश अपना गन्तरतर । पर, निश्चय ही यह मानय है राजेश्वर, अमिताभ, गलेशहर । जिस दिन निज को पा जायेगा, उस दिन होगा यह सर्वेश्वर । पेन्द्रीय कारागार, बरेली १४ सितम्बर १९४३ भूल-भुलैया भूल-भुलैया से कैसे निकले मानव का भूला गन ? हो रहा आज तो निष्कल-सा उसका सब चिन्तन और मनन । मानव की हर-हर पगडण्डी बन गयी घूम फिर कर चमकर, पानी का बैल बन गया है फिर भी, यह कब बैठा थककर 7 हम विषपापी अनम क १२३