पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१५९

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यह विश्व और यह रवि-मण्डल था वैश्वानर का क्रोधानल, इन लोक और लोकान्तर मे खद-बद करता या कोलाहल , आकारहीन या सोर-जगत्, आकारहीन थी वसुन्धरा, तारल्य और नीहारमयी थी आदि सृष्टि की परम्परा । उन सरल और आकार-रहित ट्रव्यो मे गति थी चक्रमयी, क्या किसी कुम्भकर्ता ने ही दी थी जग को यह प्रगति नयी ? ये प्रलय और उद्भव दोनो थे बद्ध एक आलिंगन मे, थी बयो सृजन को प्रगति धोर उस महानाश के रिंगण मे, आगे-आगे या महानारा, पोछे-पीछे था भव-उद्भव, अथवा विनाश, उद्भव, दोनो थे एकरूप मिथित, तद्भव, है अरे, कोग अज्ञानी वह जो नादा, मृजन, रो अलग कहे तत्त्वार्थ-दीपिरा विश्लेषण पा स्यो भार राहे ? बुद्धि व्य १२६ हम विपाया जनम के