पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१६१

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यह विश्व और यह रवि-मण्डल था वैश्वानर का क्रोधानल, इन लोक और लोकान्तर मे खद-बद करता था कोलाहल , आकारहीन या सौर-जगत्, आकारहीन थी वसुन्धरा तारल्य और नीहारमयी यो आदि सृष्टि को परम्परा । उन तरल और आकार-रहित ट्रव्यो मे गति थी चक्रमयी, क्या किसी कुम्भकर्ता ने ही दी थी जग को यह प्रगति नयी ? ये प्रलय और उद्धव दोनो थे बद्ध एक आलिंगन मे, यो बैंधी सृजन को प्रगति और उस महानाश के रिंगण मे , आगे-आगे था महानाश, पोछे-पीछे था भव-उद्भव अथवा विनाश, उद्भव, दोनो पे एक्रप मिश्रित, तद्भय , है गरे, कौन अज्ञानी यह जो नाया, सृजन, को अलग क्हे ? तत्याच-दीपिरा बुद्धि ब्य विश्लेषण का पो मार सहे। 2 १३६ हम विषपायी चनमक