पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१६५

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में आ पहुँचा, हाँ आ पहुँचा, पर मै वैसे आ गया यहाँ ? जडता के इन जजालो में चेतन कैसे छा गया यहाँ पावक-प्रसूत इस भूतल पे,- जिसमे जडता ही जडता है, चचल चेतन बोलो कैसे विकसित होकर यो बढता है ? जड चेतन, ये हैं भिन्न या कि अन्योन्याश्रित इनकी माया? क्या जड, चेतन का भेद-भाव है केवल सम्भ्रग की छाया? वे है कुछ, जो यो कहते हैं "जड,-नेतन में कुछ भेद नहीं", क्या तत्व समीक्षा कर पाये इन दोनों में विच्छेद वही? जड में भी तो अति की गति है, उरामे भी तो है शयित भरी, कण-कण में विद्युद्धेग भरा आकपण की अनुरमित भरी, है शक्ति निरो उसमे भी तो जिसको हम चेतन कहते हैं, फिर भेद कहाँ जड-चेतन में इस भ्रम मे हम पो रहते हैं ? हम विषपायी जनमक 140