पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१७८

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में उा मुक्ति - सन्देश - दूत कहता हूँ अपने जग जन में "मो मृतको, उठो, गीर गाभी, भूपे हो तुम अपने मा मे, ओ सिंहपूत, है बीच रहे ये स्यार तुम्हारा कौर, अहो, पैसामो तो अपने पजे, मन मारे या गत बैठ रहो, तुम आज दहाडो, क्रुद्ध बीर, पंप जाये वसुन्धरा सागे, पचत गिपरें भैप गायें ये, दह शृगाल अत्याचारी। ? वया नहा कि तुममे प्राण नहीं मदहोगो है ? कुछ होश नहीं ? क्यो याहते हो तुम यो कि रच तुममें जीवन का जोश नहीं? तुम तेज पुज निधूम यहि, तुम गहनशक्षित-भण्डार अहो, केवल तब शोणित-सिंचन से वसुधा है हेमागार अहो । मंडला दो तुम अपनी रिजली, दोहन-गढ़ होगा नष्ट, अरे, सत्ता-चारी हो जायेंगे निज सिंहासन से भ्रष्ट, अरे। हम विषपायो जनम के २० १५१