पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१८१

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जग के उपवनमे सुमन बने हैं सिले बिन्दु तव शोणित के, हीरवा हारो मे, ओ मानव, तव युग-युग के श्रमकण झलके, तुम दास बने उल्लास हीन, पेठे पृथियो के अन्तर मे, खानो की बीभत्राता घृणित भर लाये अपने पजर में, अब तो नीचे से उठी, वीर, विचरो इस विस्तृत अश्वर मे, तुम पडे रहोगे यो कब तक इस गत-दानुगति-आडम्बर मे? फिर से तुमको सन्देश मिला, नाशी का, नव-निर्माणो वा तुम देखो तो, राहारो में होता है उत्सव प्राणो या, उमर लेकर बन जाओ तो प्रलयकर दाकार रूप रच, यह नाश और नव सृजनो को हो लीला यहाँ अनूप रच, यह सृष्टिं पुरानी पडो, बन्धु, अब तुम रख दालो सृष्टि नयी, जिसमें उन्नतशिर हो विचरें ये मुम्हीन नतमाथ कई, दम पिपाया उनम के