पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१८०

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पयो जकह रहा है अपने को इस जोण पुरातन बन्धन मे ओ मानव, तुम गतिहीन हुए, दौथिरय भरा हिय स्पन्दन म, अव तो अपने म दाक्ति भरो, सामूहिक की अनुरक्ति भरो, जडता का द्रुत सहार करो, मकर-विप्लव की भपित करो, सगठित मरोहो हाथों से सत्तानगढ यो पर दो सपाट, सम्राट् तुम्हारे चरण-दास तुम हो अनेक, तुम हो विराट्, यह निमम जिनके हाथो में हल बक्खर, जिनके व हाथो में धन है जिनके हाथो मे हसिया है दे हो मुझे है, निधन है, हे मागव, कर तक मेटोगे महाभयकरता? वन रहा आज मानय, देखो, मानद हो का भक्षण-कर्ता, है स्वग-राज्य स्थापित करना मानव के इस लीला स्थल मे, सुख-समता का विस्तार यहा फरना है इत जगतीतल मे हम विषपायी जनमक १५५