पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

धधक उठो प्रव, ओ वश्वानर धव-धक् धक्क उठो, रो ज्वाला, हर-हर हहगे तुम, वैश्वानर ! अन्धकार का भार हो यह, छिटकाओ निज ज्योति अमाहर 11 यह एकाकी मानव बैठा गहन गिरि - गुहा में खोया-सा, नग्न परीर, निविड, तिमिरावृत, यह जागृत सा, यह सोया-सा, भौति ग्रस्त यह द्विपद, पणख, यह अजान, यह लोमावृत तन, अगम विजन विचरण-रत यह जन, गूढ, शिप्त विक्षिप्त भ्रमित मन, यह अनुशलकर, यह अज्ञानी, यह गर, जो लगता है वानर - आज कर रहा है आवाहन धधक उटो तो, भो वैश्वानर । किच-विच, किट विद, अगट, अनगल, गडबड, बार जिसकी वाणी, जिरा आदि शब्द का प्रम भी है अचरज की एक कहानी,- 10५ दम पिपायौ जनम के EM