पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/१९८

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क्या माश्चर्य कि जन-यात्रा पम सिंह - व्याघ्र - नख से है अकित? धीरे - धीरे ही होती है आदिम हिसू वृत्ति अति - लघित, उस पथ का कुछ झुकवार देखो, तो पाओगे वे चरणामन, जिनको निरस हुलस उठते है, जन गण लोचन, जन हिय प्रागण । वे पद चिह्न, कि काल - सलिल पर चिर ध्रुव छाप पार गये अक्ति, वह मग - रेखा, जो कि फरेगी युग - युग ली जन - मन नि शकित, मानय की यया गति होगी? यो हिय मे आज उठे क्यो का ? सुनो - सुनो, बज रहा दूर पर मानव को जय-जय का डका। रही है विजय पताका, घहर रहे है घण्टे धन - धन, मानव - मुनित - आगमन का यह श्रवण पड रहा गहर तुमुल स्वन, मत निराश हो, मी मानव तू, भत निराश हो ओ गि मेरे, टूर पर विरा रहे हैं, वे आदश प्रिय तेरे। कीय कारागार, बरेली ८ सितम्बर १९४३ प्राण हम निपपाया जनम के १७३