पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२०३

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हस्तागुष्ठ, अंगुलियां इसको कौशल का नव सृजन कर चली, अथवा जगती के घन, दुदम, निविड तिमिर का हरण कर चली, यह मानव ही था कि गुंजाये जिसने 'कोही कोह' के स्वर यह मानव ही था जो बोला वधया उठो अब, ओ वैश्वानर । रिच्छ, व्याघ्र, अजगर नाहर ने कभी न पूछा 'कोऽह ? कोह।' मानव है जिसने यो पूछा, औ' फिर बोला 'सोह । सोऽह" मानव ही के हिय मे जागो चाह अनलके आराधन की मानय ही के हिय मे जागी चाह नग्नता-पान्छादन की। निखिल सृष्टि जल रही दिगम्बर मानव ने सोचा पाटम्बर ।। लख राम, मनुज पुकार उठा यो धवयो, घधको, ओ वैश्वानर । इसने पत्थर में पत्थर वो खाकर रगड़ नमक्ते देखा, इसने चर्पण से जगल को जलते और दमवते देखा, 105 इम विषपायो जनम के /