पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२१७

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7 है निज वश तन, पूर्ण स्ववश मन ! यह परवश तन, यह परवश मन, इस पिंजर, इस बन्धन मे फैय पछी तडप रहा है क्षण क्षण, यह परवा तन, यह परवश मन । वह 'पर' फोन कि जिसके चश है जीवन के सब फम अनूठे वह 'पर' कोन, किये है जिसने जग नै सभी कर्म फल जूठे । अरे फौन वह जिसके कारण हम अपनेपन ही से छे, वह 'पर' फोन लगाया जिसने जीवन में यह दव, यह इंधन ? यह परवश तन, यह परवश मन बोलें सभी तत्त्वदर्शीगण कि यह सभी है इन्द्रिय पीडा, कुछ वोले, यह तो है केवल मन-मातग मत्त की क्रीडा । यदि यह है तो वही क्यो वनी इनकी क्रीडा जन की ब्रोडा? मन, इन्द्रिय के बीच फंसा है क्यो यह द्विपद विचारा लघु जन यह परवश तन, यह परवश मन, क्षण-भर मे ही हो जाते हैं क्षार-क्षार दृढ निश्चय सारे, इवा आँधी सो जय उठती है, उटते हैं तिनके बेचारे, जाने गयो फिरने लगते है सकल मनोरथ मारे-मारे । और, पूछ उठता है गानव यह क्या माग यह परवश वन, यह परवश मन ? कई बरस-गाँठे जीवन की छोरी मे लग नुको अभी तक वीत चली वरसो पर बरसे, भेज चुका भावाहन भन्तक, कुछ उतार आ चला नो का, तन भी रला रप कुछ कुछ यक किन्तु शाज तक भी होती ही रहती है जीवन में खन-जन । यह परवा तन, यह परबदा मन ? ? यह कैसा नतन ! १६३ इम विपपानी जनमक