पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२१८

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यह कैसी दुविधा जीवन में? यह कैसा समेत भयानक । नर को नारायण करने का क्या है यही अनोखा चानक ? मा नारायणता भ्रम ही है? होता यह सन्देह अचानक, मन - इन्द्रिय के बीच फंसा यह नर कैसे होगा नारायण यह परखतन, यह परवश मन । मन औ' इन्द्रियगण तो जड हैं, उनमें चेतनता कब झाको? वे तर चले जर कि जीवन ने उनमे म्फुरण शक्नि निज आँको । पर, अब आकर खडी हो गयो मम्मुत्र एक पहेलो बाँकी गया, जन का जीवन है केवल मन इन्द्रिय का सतत तुमुल रण ? यह परवश तन, यह परवरा मन । मह जीवन ही है जो अह-निदिश, गिर-गिरकर फिर-फिर बढता है, यह जीवन ही है जो सन्तत नीचे से कपर चढता है, यह जीवन है जो कि हारकर फिर उठता है, फिर लड़ता है मिट्टी में मिलकर भी ऊपर उठने की करता है कम्पन, यदपि विवश है जन-गण तन-मन । इन्द्रिय नही, स्वय जीवन ही अपनी खीच तान करता है, मन को क्या बिसात? जोवन ही गिरकर फिर उडान भरता है, स्वय इन्द्रियो मे फसता है, उनका सतत ध्यान धरता है, हो आकण्ठ निभग पक मे यही स्वय करता है कन्दन, पह परवश तन, यह परवश मन। सयम हो न सके तब भी हम क्यो समझे कि व्यर्थ है निममन' आत्म दमन ही से पाया है नर ने पूर्ण महा मानव मन ! जन गण की सभ्यता सम्पदा सयम का ही है शुभ लक्षण, तब क्यो हो नैराश्य हृदय मे गिर गिरकर भी क्यो न कह जन है निज वश तन | पूर्ण स्ववश मन ।। रीव शमगार, बरेली ५गिवर १९४३ १९३ हम विषपामो बन २५