पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२२४

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और गिरा, तब वह आ पहुँचा, जगलांक के गगनागन मे, कोटि- रश्मि- चत्मर-महदन्तर फैल रहा है जिन प्रामण म । जहाँ विचरते हैं वे रवि जो, हैं शत सूर्यो से भी गुरतर, जिनकी नाभा फैल रही है। उस अम्बर में छह-छहर कार, इस अम्बर में भूत-द्रन्न राब, व्यष्टि सप बनकर आया है, इनीलिए विस्तार अमित यह, जनाक हो साहलाया है। दूर-दूर, हाँ दूर-दूर अति, लक्ष-लका रविं नाच रहे हैं, पपा जाने किसके कहने से, ये नट-कछनी काछ रहे है, इनकी लीला लसता-लाता, मानय होता रहा पतित नित, ये लीलाएँ गनुज बिचारा, समय न राका रच भी समुचित, जनोंक से गिरकर मानव, महर्लोक मे अटका आकर, मानो उसके कृति-विचाक ने, उरो वहा पर पटका लाकर । हम विषपायी जनम के