पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२२३

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यो यह सत्य-लोक से गिर कर तपकि मैं आ जहाँ प्रदीप्त वाय्प पिण्डो की इसने देखी जग एक-एक उस वाप्प पिण्ड में कोटि काटि थे सूम ऐसे काटि-कोटि पिण्डो की फैल रही थी विभा । जहा अब सबों की गणना रह जाती है सकुच-मनु ऐसे तपलॉक से भी तो गिरता गया मनुज यह सा कोटि युगो तक गिरते-गिरते मनुज निरखता रहा दिवालं शत-शत लक्ष वाष्प-पिण्डा की उसने देखी ज्योति निराली, मानव गिरता था नीचे को, वाप-पिण्ड उठते ये ऊपर, उसके दाय बाय वे सब, ऊंचे को जाते ये सर सर ! और गिरा जब, तब आ पहुंचा, कुछ बुटपुटे अंधेरे म वह, मानो, तपलोंक म ज्योतित बाट मॅगूरे सभी गये दह १६८