पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२२६

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महलकि भो कपर छटा, फिर शून्यत्ता तमोमय आयी, ऐसा तम था वहाँ कि जिसमें फहीनही थी ज्योति निमाई, धूप छोह मे यी यह मानव नीचे गिरा कई गयो तक, तय उसने स्वाक - छटाएं, ऊपर मातो देखी अपलक, विह्वल-मा, आतुर-सा, मानय, आन गिरा स्वलोक - भुवन मे, जहाँ तरगवती स्वर्गगा लहर रही थी नील गगन में। महाकाश गगा रहती है, जहाँ दीप्त हैं अगणित तारे, वे तारे, जिनकी समता में, सहस-सहस रविगण भी हारे, जहा एक थल से दूजे तक ज्योति पहुँचत्ती मन्वन्तर में, ज्योति बही कि सहनो योजन जिसको गति है इक पल भर मे, स्वगंगा की उच्छल लहरें जहाँ धूलि करती हैं सिनित, ऐसे विशद लोक में भी यह मानव पिर न रह सका किंचित् । २०१ हम विषयायी जनम के २६