पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२३३

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पर 1 पर यह जग तो अन्या है, नहीं देखता भेद जरा, नही देख पाता यह नर के नारी हिय का खेद जरा, शुद्ध तत्त्व दशन का जग में रच मान सामथ्य नहीं, इसी लिए तो नही पा सका जग अब तक निवेद जरा वह नर तो वानर है जिसमे नारीपन का अश नहीं वह है उपल, नहीं हिय, जिसमे सह-अनुभव का दश नही, पर-विपदा में यदि ये लोचन छलक छलक भर आये ना, तो फिर समझो कि बस हो चुका मनुष्यत्व का भ्रश यही सखे, नरोत्तम है यह जिसमे नर-नारी का हो मिश्रण, जिसको सर्व भूत हित-रति मे हो नारी हिय का कम्पन, जिसकी आँखो में जग से, माता की छवि का अकन, ऐसे ही नरवर भरते है जग का सृवित वेदना प्रण विकसित पूर्ण पुरप वह, जिसमे हो नारीपन की झाई। जो जग-जन को हृदय वेदना समझे नारी की नाई, प्रति विकसित नर में झलवे है नारीपन का अवा सदा, उसी तरह ज्यो विभु मे विम्बित प्रकृति-वधू की परछाई नर मे नारी वा न चिह्न तो मानव प्रेम-धम श्या है ? यदि नारीपन हो न पुरुष में तो नर को नर क्यो चाहे ? मानवता के इस विकास की यह भी एक पहेली है, मिश्रित एक व्यक्ति में होते नारी-नर गाहे गाहे । नर-नारी दोनो में दोनो झलक उठे जय बरबस-से, तभी समगिए कि यह हुआ है हृदय प्रपूण एक रस से, नर नागे हो, नारी नर हो, यही सुगति है जीवन को, तभी विश्व घेदना भाव से हृदय बिचेंगे पर-वश से । २०॥ दमविपाया जनमक