पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२३२

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भ्रान्त धारणा भरी हुई है जग-जीवन की थाली में, यही स्पष्ट दान होते है लौकियता-धियाली मे? यो करणा भरना आँखो मे यहां मना है, ओ भोले, हृदय-माचौटन भी वजित है लोकानार-प्रणाली मे। नारी हियवाले ओ तुम गर, कुछ नर-पशु का रुप घरो, अपने वत्सल, कोमल, विगलित, मृदुल, हृदय से रच डरो, इस गणितज्ञ जगत् मे तो नित एक+एक दो होते है, यही भूल से भी, सुविभाजित दो को एक कभी न करो। पर सुम लौकिक उपचारो के वधन में कच बंधे रहे? तुम तो सदा, सदा अपनो ही अचल धुरी पर सधे रहे, आज तुम्हारे मारी-हिय को जगत् चुनौती देता है, कैसे सहते हो वचन याण वे बिना कहे। देखें तुम याँ चर्चा है, ससे, तुम्हारे कोमल प्रबल अमयम मा, यो चर्चा है आज तुम्हारे मस्ताने से अनियम का, अति वैराग-जोग के साधक, जगत् उजागर तुम कर थे? जग तो परिचय देता ही है अपने यि के सम्भ्रम का। तनिक स्नेह से गद्गद होना, तनिक बलाएँ ले लेना, तनिक किसी के अक्षु पोछना, तनिका सहारा दे देगा,- ये बातें जग को आँपो म मतलब भरी फहाती है, उफ् । जग के पठाच मे है या यिनकी मति विभ्रम रोना । मतलब हो, तुम नर के नारी हिय में भी सो है मतलब, बिना नेह निर्वाह तुम्हारे जी मे कल परती है कब? अपनी तडपन वा करने को, ससे, ललकते फिरते हो, इसी लिए क्या जंग कहता है, कि तुग मतलवी ही चैटय ? हम विपपायो जनम के २०७ 3