पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२४२

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यद्यपि तुम सन्तत एकाकी, पं तुम हो निधि मानवता को- सतत लोक-सग्राहकता की, चिन्ता तुम्हे मरूल वसुधा की। तुममे सृजन शक्ति विषना की, तुम प्रलयंकर शम्भु पिनाको। छिन दरसावत सिरजन झांकी, पुनि प्रकटत विनास छवि वाकी । ओ तुम महा प्राण करुणाकर, कौन प्रेरणा लाये हिप-भर? जग यो सन्तत महत निरादर, तउ बरसत हो जिमि धाराधर, रिमि-रिमि तिमि तब करणा बरसो, जगतो तव प्रसाद ते सरसी, पेग भरी तव हिय को सरसी, जनु पछु बात रही अवपरसी । दोहा-ओ, मानवता के सतत यिनाट प्रनायो गोर तुम आगे आगे चलहु, जन-गग-हिंय तग चोर ? निहर्ने पहुँचेंगे सकल, मानव वाई ठौर । जहँ प्रशस्त तुच पन्थ है, जहं न सापारी खोर । के द्रीय कारागार, बरेली ६ सितम्बर १९४३ रापि, ११० नैना प्यारी इन अँखियान को बी अटपटी नेह, कवहूँ चमकत बोजुरी, यवहूँ बरसत मेह । छिन डोले-डोले फिरें, पुनि डिन मे सकुचात, कहीं कहा ? नेमान को, बडी अनोखी बात। ११० हम विपपायी जनम के २८