पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कान परी ऐसी कैसी ध्वनि, जो तुम चले सतत यात्री बनि । तुमने सब लौविवाता त्यागी, सूब भये तुम निपट विरागी । लखि तुब शेम हंसत जग के जन, अचरज करत पन्थ के रज-कन, सकुचि रहे मारग के पाहन, लखि को तुम्हे विरथ, बिनु थाहन मग पाहन, पथ शूल फूल-गन, योई चूमत चकित तप चरण, ऐगेई विर्हसत स्थाने जन, ५, न प्रवागी होत विरत मन । कहूँ दूर जाकी रति अटकी, तो किमि चिता करे निकट वी? जब दृग् परी दूर को शाई, पहा निकट को तब परछाई ? जव लोचन अलभ्य रंग-राते, तब न युलभ के ठाठ सुहाते, जव सुलक्ष्य को लहरी गगा, तब मिमि भावे इतर तरगा? दोहा - जो निकस्यौ नव सृजग को वाते कहा वसाय ? लौकिकता को लघु उसक, कैसे वाहि सुहाय तुम नि साधन तुम फरपानी, सन्तत चले जाहु तुम यानी, करहु प्रशस्त ऊध्य मग-रेखा, पनि तुम सतत प्रवासी भेषा । धन्य धन्य तुब बरण गमन-रत, धन्य धन्य तव मस्तक उन्नत । धन्य शूल तुम पाँव संगाती, धन्य धरि तुव अग सुहाती। तुब छकुटी प्रवामिनी धन्या, वह तुव चिर - रागिनी अनन्या । तुम नव नब मारग निर्माता, तुम नव अगम दिशा के ज्ञाता। तुम ही अलख लखावन हारे, तुम उत्क्रमण-शान रखवारे, तुम समुद्र मन्यन करि लाये, - जन सस्कृति के रतन मुहाये । तुम अभिनय रवि-शशि पे सृष्टा, अगम भविष्य भाव के द्रष्टा, नव विज्ञान-शान के शोधक, तुम प्रचण्ड जड दि - विरोधक । इम विषपाली जनम दे 2 २११