पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मेरे प्राणाधिक दोहा-मेरे प्राणाधिक सरल, देख यही वरदान, गूंजे नित मम श्रवण गे पुण्य नेह के गान । मेरे प्राण, श्रवण, लोचन, मन, मेरे अग अग, शोणित कण । तव सनेह के रस मे पागें, निज तव चरणन में अनुरागें । मिटं सवाल जम को कोलाहल, उमढे नेह-धुनी कल कल कल । में डूबें चिर नेह सुरस मै, तब मुख-कज खिल मानस में । छोटी सी मम जीवन गागर, बै निस्सीम बने रस सागर । टटे मेरे सीमा वन्धन, यह वर देहु मोहि, हित-नन्दन । जो तुम मो डारी पे फूलो, जो तुग निज जन पं अनुकूलौ । तो फिर कहा ताप-भय जग के, और कहा पाण्टक मो मग के ॥ कहा पन्य को लीक खुरपुरी, कहा मृत्यु को भोति यापुरी। जो तव मिति प्रसाद-बल पार्क, हरि हसि जग जजाल उठाऊँ। है विदेह में भजो तुम्हे नित, ऐसे आय वसहु पिय, मम चित । भूलहु मेरे श्वास-हिडोले, अब तो आप ढरहु अनबोले ।। टेरत-टेरत सब दिन बीते, पेन रे तुम प्राण-पिगते । पात्र लो आवहुगे तुम इत खें, मेरी अजलि-अध्य परयो ।। एतो कौन रोग है मेरी? ऐसो पातक बोन पनेरो' किमि है हैं मग रज पण कचन, जवलो मिलेम्पर्दा तथ रच गए वोहा-देवहु सम्मुरा आय के, है मेरे मुसुमार तरन अगायाधय जगै, तो भोको धिकार पेन्द्रीय कारागार, बरेली १जनवरी १९४४ हम पिपपायां जनम के २२१