पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२४९

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अपनी-अपनी वाट हे सत्र जग के जनन की अपनी-अपनी बाट, अपनी-अपनो राग है, अपनो अपनो ठाट । प्रति जन को है आपुनो भिन्न-भिन्न ससार, रग-बिरगी भिन्नता फैली अपरम्पार। सब जग-जन को है यहा भिन-भिन्न दिक-ज्ञान, भिन्न-भिन है रावन को अपनो काल-प्रमान । काऊ को है निमिपवत् अन्तहीन यह फाल, काळ को इक छिन लगत ब्रह्म-दिवस विकराल । बाबहुँ एक डग सम लगत यह सब दिग्-विस्तार, कबहुँ एक पग हू वनत अति दुगम पथ-भार । देश-काल क्यहूं बनत अति लघु मान-प्रतीका, अन्तहीन कबहूँ लगत इनकी अनित,लोक । काऊ को है वास्प मय शरद-गिशिर की रात, कोउ कहत है क्यो भयो इतनी शीत्र प्रभात' द्रीय कारागार, बरेली २४ मई १९४४ 7 २२४ दम पिपाय जनम