पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२६०

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उपालस्म जीवन-सरल तरगिणी सूखि भयी कृश धार, द्वेष-भत्त जग ने दियी, यह निदाध-उपहार । जग प्यासी अवलोकि कं, हम भरि लाये नीर, फूटि गयी गगरी लगे उगालम्भ के तोर । साश भधी, सूरज भयो पश्चिम दिशि की ओट, नभ अंधियारी वढि चत्या, हिय कसको निशि-चोट। सोच भयौ हिय, देखि के अपनी जीवन-साझ, दिन को घडियां रह गयी, हाय, बोझ की बाझ नेह दियो निष्ठा सहित, पायी घृणा अपार, सेवा को मेवा मित्यो यह कृतघ्न व्यवहार । श्री गणेश पुटीर कानपुर ४ मई १९४२ प्रतीक्षा रटत नाम, सुमिरन करत, वीरान्यी मन-दोर, जोहत मथ इन्टक सतत, उमडयो नैनन नीर। दिशला-सण्टप वैटि, हम,निज हिय, लोचन, चौर,- देखि रहे जग मग चलत इन पन्यिन को भीर। हमे अश्म-आसन मिस्यी, मिली प्रतीक्षा पोर, मिली उपेक्षा, औ' मिले उपालम्भ के तोर । हम विषपायी जनम के