पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/२९७

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तुम हो कौन ? जरा बतला दो, हे मेरी सम्भ्राति। शान्ति-सरणि की धवल रेण हो,या कि विरह की काति इस चितवन ने छलनी कर डाला हिय-भाजन दीन, यूँद बूँद कर टपक गयी वह मुरस-राशि तल्लीन । विना नीर के तडपा करता है अब यह मन मीन, अरे, जरा तो इसे उवारी आकर हे हिय-हीन' प्राण लज्जा है कि उपेक्षा ? मुझको जरा वता दो, 1 चरणो के नग्न से ही लिख दो कुछ धीरे से मान । मेरी भान-कुटी, बागन में, चरण-चिह्न को देख, राच कहता हूँ, पुलवा उठेगी, त्यागे ज्ञान-विवेक । पर मेरे करे अंगना क्यो आने लगे हुजूर। फिर पद-नख से लिखने की तो बात बहुत है दूर' पर इतनो यह मक भावना क्यो उमडी इस यार, वहाँ गया यह सजल सलोनी वाती का विस्तार । सब जग से बोलो हो, हमसे इतनी खफगो हाय अजी, कभी तो कुछ कह दिया करो हमरो मुसकाय इधर-उघर आते-जाते पलको का ढंकना खोल, हमको तुम नयो ना दिखलाते अपनी निधि अनमोल' क्या जानूं जिस घडी निगोडी आंखें अटकी मान, उसी पाश में बंधी फिरें हैं, जरा न ये शरमायें। तुमको क्या तुम तो इस गति को समगे होसिलवाद, बढी लाज की गूरत वा, करते हो वद विवाह । शहाकी कर रैने दो, वरना ये लोचन येचैन, तटप-तप वर बन जायेंगे यूरदास के मैन' २०२ मग विषयायी जनमरे .