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पर में पमहीन नित परवदा, दूर वसी साजन की नगरी, और अनेको विकट रान्तरी रोक खडे है मेरी उगरी, मेरे प्रियतम परम स्नेह-धन, परम उदार, परम करणायन, जिनके चरणो मे मम कण कण अर्पणहित उतरुण्ठित क्षण-क्षण मम मन-भृग गुजरित सन्तत, गुन-गुन उनके गुण-गायन रत सोच-सोच अब वे क्षण सुविगत, है व्याकुल पुखित शर-आहत, यहाँ पुण्य मन्दिर साजन का, कहां दरस निज जीवन धन का जब आनद बज उठा रण का, सहमा स्नेह-मनोरथ मन का। ? प्रिय, अम फिर कब मुमकाओगे। योलो, सम्मुम कब आओगे? मजुल छथि कय दिखलाओगे? अप फिर कब दृग मे छाओगे? मेरे रण की अवघि अनिश्चित पर, गम स्नेह-साधना अचलित, तुम हो देश-काल पट अपिहित, तदपि सदा तुम मग हुदय स्थित, जीवन में शुभ अवसर आया, बड़े भाग्य में तुमको पाया, हम विषपारी जनम के 16