पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पर में पमहीन नित परवदा, दूर वसी साजन की नगरी, और अनेको विकट रान्तरी रोक खडे है मेरी उगरी, मेरे प्रियतम परम स्नेह-धन, परम उदार, परम करणायन, जिनके चरणो मे मम कण कण अर्पणहित उतरुण्ठित क्षण-क्षण मम मन-भृग गुजरित सन्तत, गुन-गुन उनके गुण-गायन रत सोच-सोच अब वे क्षण सुविगत, है व्याकुल पुखित शर-आहत, यहाँ पुण्य मन्दिर साजन का, कहां दरस निज जीवन धन का जब आनद बज उठा रण का, सहमा स्नेह-मनोरथ मन का। ? प्रिय, अम फिर कब मुमकाओगे। योलो, सम्मुम कब आओगे? मजुल छथि कय दिखलाओगे? अप फिर कब दृग मे छाओगे? मेरे रण की अवघि अनिश्चित पर, गम स्नेह-साधना अचलित, तुम हो देश-काल पट अपिहित, तदपि सदा तुम मग हुदय स्थित, जीवन में शुभ अवसर आया, बड़े भाग्य में तुमको पाया, हम विषपारी जनम के 16