पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३४

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किन्तु काल की ऐसी माया, पाकर भी फिर तुम्हे मॅयाया। यद्यपि सन्तत रमे हुए हो, तुम मेरो शोणित-धारा मे, अष्टयाम ही तुम रहते हो मेरे सग सग कारा मे, फिर भी अकुलाता रहता है मेरा हृदय और मेरा मन, मैं हूँ सगुण उपाराक, मुझको कैसे धीरज दै निगुणपन सतत तुम्हारा स्मरण, ध्यान ही है अवलम्ब यहा जीवन का, पर, किमिहोगा तब स्मिति-युति बिन, दूर तिमिर एकाकीपन का? १ के द्रीय कारागार, बरेली २८ माच १९४४ क्यों थके तन क्यों धके मन २० थक गया हूँ, विरप हूँ मैं, है परम विधान्तिरत मन, किन्तु गाता ही रहूँगा मैं भ्रमण के गीत पावन, यदपि है अति थकित सन-मन । हम विषपामी जनम के 11