पृष्ठ:हम विषपायी जनम के.pdf/३५९

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पास - पास हो यहा खिंच रही, जनम - मरण की अगिट लवोर, कारागृह मे भी आ पहुँचा, यह ऊथमी बसन्त समीर। निराशा, धूप - मुह मेरे कारा मे क्या ग्रीडा कर रही अली, मानो आशा तथा आँगन में मचली, नभ - मण्डल मे धूम सदृश उड आधी धवल मेष माला, मानो नीरस तूल उडाता हो कोई बैठा-ठाला, मदिर-अलस - रम पूरित उठते - यौवन - सा अति गहर गम्भीर,- कारागृह मे भी आ पहुंचा बसन्त समीर। यह ऊचमी दक्षिण पश्चिम दिशि वधूटिया, वलित विकम्पित हुई यहाँ, अपनो श्वास समीरण - दूती, मेज रही हैं कहा- पहा मगती ही रहती है- पच्छिम पौन की विश्ल व्यया, द्रुम माना निगलित पत्रा पर, शिखी या गरण 420 हम विपाय नम